महिलाओं को क्यों नहीं आने दिया जाता राजनीति में?

By
7 Min Read
Disclosure: This website may contain affiliate links, which means I may earn a commission if you click on the link and make a purchase. I only recommend products or services that I personally use and believe will add value to my readers. Your support is appreciated!

By राजेश ओ.पी. सिंह

अभी हाल ही में गुजरात और हिमाचल प्रदेश विधानसभा चनावों के नतीजे आए और दोनों राज्यों की विधानसभाओं में एक बार फिर से महिलाओं को पुरुषप्रधान समाज ने गायब कर दिया।

68 सीटों वाली हिमाचल प्रदेश विधानसभा में केवल एक सीट और 182 सीटों वाली गुजरात विधानसभा में केवल 16 सीटों पर ही इस पितृस्तातमक समाज ने महिलाओं को जीतने दिया है। आजादी के 75 वर्षो बाद जब भारत सरकार आजादी का अमृत महोत्सव मना रही है तब यदि विधानसभाओं में महिला पुरुषों की संख्या के बीच इतना अंतर है तो ये भारत देश के लिए चिंता का विषय है। क्योंकि जब तक प्रतिनिधित्व में महिलाओं को उनका हक नहीं दिया जाएगा तब तक उनकी स्थिति में सुधार की गुंजाइश बहुत कम नजर आती है।

भारतीय संविधान में किए गए लैंगिक समानता के प्रावधान के बावजूद और जब महिला मतदाताओं की संख्या लगभग पुरुषों के बराबर है तब भी महिलाओं को राजनीति में भागीदार नहीं बनने दिया जा रहा। यहां एक प्रश्न यह उठता है कि आखिर कब तक महिलाओं को पुरुषों द्वारा अपने अनुसार बनाई गई नीतियों पर अपना जीवन यापन करना पड़ेगा? क्योंकि जब नीति निर्माण की सारी शक्तियां विधायिका के पास होती है, तो फिर विधायिकाओं में महिलाओं की संख्या को क्यों नहीं बढ़ने दिया जा रहा? 

गुजरात विधानसभा में पितृसत्ता ने आज तक केवल चार बार ही 9 फीसदी सीटे महिलाओं को जीतने दी हैं, उसके अलावा ये आंकड़ा 7 फीसदी या इससे कम रहा है। हिमाचल प्रदेश विधानसभा में तो स्थिति इस से भी बुरी है और यहां केवल दो बार ही महिलाओं को 7 फीसदी सीटें जीतने दी गई हैं और ये आंकड़ा इस बार तो घटकर डेढ़ फीसदी पर आ गया है।

वहीं बात यदि लोकसभा चुनाव 2019 की करें तो पहली बार 14 फीसदी महिलाओं को लोकसभा में पहुंचने दिया गया है। इस से पहले ये आंकड़ा 10 फीसदी के आसपास रहा है। और भारत के 19 राज्य ऐसे हैं जहां कि विधानसभाओं में महिलाओं का प्रतिनिधित्व 10 फीसदी से कम है।

भारत ही नहीं बल्कि विश्व में पुरुषप्रधान समाज द्वारा ये अवधारणा गढ़ी गई हैं कि महिलाएं चुनाव नहीं जीत सकती, जो कि गलत अवधारणा है, इस पर पूर्व चुनाव आयुक्त एस.वाय.कुरैशी कहते हैं कि यदि आजाद भारत के 70 सालों के चुनावी इतिहास के आंकड़ों पर गौर की जाए तो पाएंगे कि हर बार चुनाव जीतने वाली महिलाओं का अनुपात उन्हें दिए गए टिकटों से अधिक रहा है। आज तक सभी राजनीतिक दलों से बने कुल उम्मीदवारों में केवल 6 प्रतिशत ही महिलाएं रही हैं जबकि इनके जीतने की दर 10 प्रतिशत है। जो महिलाओं के जीतने की क्षमता को दर्शाता है कि भारत में महिलाएं पुरुषों के मुकाबले ज्यादा संख्या में चुनाव जीत सकती है बकायदा उन्हें ज्यादा मौके दिए जाएं। जैसे यदि हम 2019 लोकसभा चुनाव को देखें तो पाएंगे कि कुल उम्मीदवारों में महिलाओं की संख्या केवल 9 प्रतिशत थी जबकि 14.4 प्रतिशत सीटों पर महिलाओं ने जीत दर्ज की। वहीं दूसरी तरफ पुरुष उम्मीदवारों में जीतने की दर केवल 6.3 प्रतिशत थी।

इससे तस्वीर साफ हो रही है कि महिलाओं की चुनाव जीतने की क्षमता पुरुषों से ज्यादा है परंतु उन्हें मैदान में उतरने ही नही दिया जा रहा। जैसे बीजेपी ने गुजरात में 182 उम्मीदवारों में से केवल 18, वहीं कांग्रेस ने 14 और आम आदमी पार्टी ने केवल 6 महिलाओं को उम्मीदवार बनाया। अब जब चुनाव लड़ने का मौका ही नही दिया जाएगा तो कैसे ही कोई महिला चुनाव जीत पाएगी। 

प्रत्येक देश को रवांडा से सीख लेनी चाहिए, यहां संसद में महिला सांसदों की संख्या 61 प्रतिशत के आसपास है और इतनी संख्या पूरे विश्व की किसी संसद में नहीं है। और ये तब है जब रवांडा ने आज से 30 वर्ष पूर्व दुनिया का सबसे बड़ा नरसंहार झेला। इतने कम समय में अर्थव्यवस्था को फिर से उभारते हुए और संसद में दो तिहाई सीटों पर कब्जा करते हुए महिलाओं ने करिश्मा कर दिखाया है।

रवांडा की महिलाओं ने नरसंहार के बाद कारोबार को अपने हाथ में लिया, महिलाओं को जागरूक करने के लिए विभिन्न समूह और एनजीओ निर्मित की गए और समय समय पर अभियान चलाए गए क्योंकि महिलाएं समझ चुकी थी कि यदि वो घरों से बाहर नहीं निकली तो स्थितियां और ज्यादा खराब हो जाएंगी। 

इसी प्रकार भारत की महिलाओं को भी अब घरों से बाहर आना होगा और एक दूसरे के साथ एकजुटता दिखाते हुए मजबूती से अपने हक पर कब्जा करना होगा। क्योंकि अब पुरुषों के भरोसे नहीं रहा जा सकता कि वो महिलाओं को उनका हक दे देंगे।

भारत में पंचायतों की तरह लोकसभा और विधानसभा चुनावों में भी महिलाओं के लिए 33 फीसदी सीटें आरक्षित की जानी चाहिए और ये महिला आरक्षण बिल पिछले लंबे समय से भारतीय संसद में धूल छांट रहा है। और निकट समय में इसके पास होने की कोई संभावना नहीं हैं क्योंकि कोई भी प्रस्ताव या बिल तभी नियम बनता है जब उसके पक्ष में बहुमत सांसद मतदान करते हैं परंतु भारतीय संसद में महिलाओं की संख्या तो केवल 14 फीसदी ही है और लगभग 86 फीसदी सीटों पर काबिज पुरुष सांसदों से उम्मीद न के बराबर है तो कैसे ही ये बिल पास हो पाएगा और कानून या नियम बन पाएगा।

इसलिए बिना आरक्षण बिल का इंतजार किए महिलाओं को अपनी ताकत दिखानी होगी और  पुरुषप्रधान समाज के मुंह पर तमाचा लगाते हुए प्रतिनिधित्व छीनना होगा ताकि अपने लिए खुद नीतियों और योजनाओं का निर्माण कर सके और महिलाओं को उभरते भारत में उभारा जा सके।

 

Share This Article
Leave a Comment

Leave a Reply

Your email address will not be published. Required fields are marked *